Tuesday, April 21, 2009

मां सबसे है पहले मिरी लिल्लाह खुदाओं में...

माँ की दिली पुकार ने इस ग़ज़ल को जन्म दिया और इसे कहने लायक परम आदरणीय गूरू देव ने बनाया ... आप सभी का भी प्यार और आशीर्वाद चाहता हूँ ....

बहर - २२१ १२२१ १२२१ २१२
मफऊलु मुफाईलु मुफाईलु फाएलुन



इतना तो असर है मेरी माँ की दुआओं में ।
टूटा हुआ पत्ता भी बसे है फिजाओं में ॥

बादल भी था बिजली भी थी तूफां भी तेज था ।
आंचल ने बचाए मुझे रक्खा घटाओं में ॥

आंखों से हूँ ओझल ओ' बड़ी दूर हूँ मगर ।
दे जाती है ममता मुझे अम्मा हवाओं में ॥

देती न सलीका जो वो चलने का धूप में
कैसे मैं भला बैठ यूँ पाता क़बाओं में ॥

देखा नही रोते हुए दुख में कभी उसे ।
हां आंखें छलकती है खुशी की सदाओं में ॥

वो पूजते पत्थर है मैं इंसान पूजता हूँ
मां सबसे है पहले मिरी लिल्लाह खुदाओं में ॥

हर मर्ज को हाथों से मां छूकर भगाए ज्यों ।
तासीर मिली अर्श को कब वो दवाओं में ॥

प्रकाश'अर्श"
२१/०४/२००९

Tuesday, April 14, 2009

मेरे सिरहाने उड़नतस्तरी ...

हर सुबह की तरह आज की सुबह नही थी अगर ऐसा कहूँ तो कोई आश्चर्य की बात ना होगी.हालाकि सुबह तो आज भी हुई थी हर रोज अपने माता पिता को नमन कर बिस्तर त्यागता था मगर आज बिस्तर त्याग ही नही पाया कारण ये था के जैसे ही मेरी आँख खुली मेरे सिरहाने एक कुरियर था ,उन्धियाते आंख से देखा तो मेरे नाम से ही था मगर निचे छोटे अक्षरों में एक नाम था जो ब्लॉग जगत में उड़नतस्तरी के नाम से हर ओर जगमाता रहता है और वो नाम था प्रसिद्ध ब्य्न्ग्कार हास्य लेखक और मेरे बड़े भाई श्री समीर लाल जी का।

घोर आश्चर्य प्रफूलित और अपने आप पे गर्व महसूस कर रहा था मैं दिल ही दिल उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं दे रहा था । और एक और सुबह जो जिंदगी में कभी ना भूल पाने वाली हो गई क्युनके मैं हमेशा कहता हूँ के हर दिन नही भूल पाने वाला दिन हो ये मुमकिन नही होता।और ये आज का दिन बड़े भाई के नाम कर दिया मैंने भी . हो सकता है इस पुस्तक को सबसे पहले पाने वाला शायद मैं बन गया जैसी की मेरी दिली खाहिश थी।
बस बिस्तर पे बैठे बैठे ही इस पुस्तक को पढ़ना शुरू कर दिया,जितने दिल के धनी वो है उसके क्या कहने पुस्तक को समर्पित किया है आपने माँ को मैं ये सवाल करता हूँ उनसे के ये सभी माये देखने में एक जैसी क्यूँ होती है ?
मैंने कभी उन्हें देखा नही मगर मेरा नमन है उनको।
माँ के तस्वीर के निचे बिखरे हुए पाँच मोती है क्रमशः गीत ,छंद मुक्तक कविताएं ,ग़ज़ल, मुक्तक और फ़िर क्षणिकाएं क्रमागत रूप से जैसे पुरी तरीके से माँ को समर्पित। इस भावविशेष पे उन्हें बधाई ॥
मैं पांचो को थोड़ा थोड़ा करके बताऊंगा ...
कल तक लोग सामील लाल जी के हास्य स्वरुप को देखा होगा और ख़ुद मैं भी उनके इसी स्वरुप से परिचित था मगर वो इस तरह के गंभीर विषय पे लिख सकते है या ये गंभीर स्वरुप भी उनका है ये समझ नही पाया था !!! चलिए मिलते है उनके कई स्वरुप से ..
गीत :- अपनी माता जी को समर्पित इस गीत के बारे में क्या कहने
सूरज क्यूँ इतना तपता है
मेरा अंग अंग जलता है
पहले सा सूरज लगता है
पर कितनी तेज चमकता है
मेरी चाट जाने कहाँ गई
छाँव पाने को दिल मचलता है
माँ ! तू जबसे दूजे जहाँ गई
ये घर बिन चाट का लगता है
माँ के बारे में इतनी गंभीर बात अगर कोई लिख सकता है तो उसके बारे में हास्य की अवधारण सिरे से खारिज हो जाती है स्वतः ही । बस ये कहूँ के मशहूर शईर जनाब मुनव्वर राणा साहिब के बाद समीर जी को ही पढा इस तरह से माँ पेइस कविता के लिए उनके लेखनी को सलाम

छंद मुक्तक कवितायें :- जरा इस गहरी और अप्रतिम सोच को पढ़े और कहें की क्या ये समीर लाल जी ने ही लिखी है ??? तो मैं कहता हूँ जरा मजाकिए किस्म के इंसान के इस गहरी सोच का क्या कोई अंदाजा लगा पायेगा। जो आपनी सरल भाषा शैली जो मूलतः बोल चाल के लिए इस्तेमाल किया जाता है मानस पटल पे इतनी गहरी छाप छोडेगी ...... ।
१. दालान से नीचे उतरती
दो सीढियों के
सिल के बीच से
उग आई
कहती है मुझसे
हमें अपनी स्पेस
बनाना आता है
मुझे अवाक देख
दीवार पर लगी काई
मेरी पतनशील सोच को
मुंह चिढा रही है...

२ साहिल पे बैठा
वो जो डूबने से बचने की
सलाह देता है
उसे तैरना नही आता
वरना
बचा सकता था ...

धन्य हुआ मैं तो इस तरह पे सोच को पढ़ के कमाल कर दिया है समीर लाल जी ने॥
अब चलते है ग़ज़ल की ओर जो मेरा सबसे पसंदीदा साहित्यिक भाग है या ये कहूँ के मेरे रगों में बसी है तो ग़लत ना होगा मगर इस पहचानने वाले मेरे गूरू श्री पंकज सुबीर जी है तो इसे निरंतर निखारने में लगे है ॥मगर अभी बात करते है समीर लाल जी के ग़ज़ल लेखन की.........
ग़ज़ल:-
देखता हूँ बैठ कर मैं इस चिता पर कब्रगाह
छोड़ दो इस बात को,ये मजहबी हो जायेगी
समाज में धर्म के नाम पर जो दंगे फसाद हो रहे है और जो आतंक देखने में आ रहा है क्या ये शे'र मुकम्मल तरीके से प्रर्दशित नही कर रहा है इस शेर पे आज के जाने माने ग़ज़लों में खासा दखलंदाजी रखने वाले डाक्टर कुवंर बेचैन साहिब ने उनकी पीठ थपथपाई है, किसके मुंह से इस शे'र पे वाह वाह नही निकलेगी... ये इंसान इंतनी गहरी बात को इतनी आसानी से लिख लेगा हतप्रभ हूँ मगर कोई शक नही॥

एक और शे'र लिखने से अपने आपको रोक ना सका॥

फ़ैल कर के सो सकूँ इतनी जगह मिलती नही
ठण्ड का बस नाम लेकर,मैं सिकुड़ता रह गया
क्या ये शे'र गहरे भावबोध का परिचय नही करा रही है मानसपटल पर...

और छोटे बहर के ये दो शे'र ....

मौत से दिल्लगी हो गई
ज़िन्दगी अजनबी हो गई

साँस गिरवी है हर इक घड़ी
कैसी ये बेबसी हो गई ॥

जैसा की मेरे गूरू देव कहते है के छोटे बहर पे लिखना जितना आसान दीखता है उतना होता नही क्युनके आपको कम शब्द में पुरा का पुरा कथ्य को सम्पूर्ण करना होता है ,इस बात पे समीर जी के क्या कहने छोटी बहर के उस्ताद शाईर ....

मुक्तक:-
सिर्फ़ एक मुक्तक ने मेरा दिल लूट लिया .....
नज़र पड़ती है धरती पर,वहाँ तारे भी रोते है
असर है खौफ का ऐसा खुली आँखों ही सोते है
सजगा जब तलक होगी,ज़रा हम चैन पा लेंगे
अधिकतर चुक के किस्से,बड़े शहरों में होते है॥

कितने खुले विचार को शब्द बोध में बाँध कर के रखा है समीर लाल जी ने ॥

क्षणिकाएं:-
एक गरीब और बेचारी मान को देखिये कैसे बच्चे को जीना सिखाती है...

रोटी के लिए
बच्चे की जिद
और वो बेबस लाचार माँ
उसे मारती है,
वो जानती है भूख का दर्द
मार के दर्द में
कहीं खो जायेगा
कुछ देर को ही सही
बच्चा रोते रोते
सो जायेगा
एक और समसामयीक पे क्षणिका इसके बाद आपको भी पता लग जायेगा के समीर लाल जी कितने ठोस ब्यंग्कार है ...

ऊँचे अंक लाने के बाद भी
वो प्रतिक्षा सूचि में
खडा है...
आरक्षण का तमाचा
सीधा उसके गाल पर
पडा है....

देखिये इस लेख और रचना को कितनी गंभीरता लिए हुए है ...

बस यही कहूँगा के कौन कहता है के ये बिखरे मोती है, मैं तो कहता हूँ के ये तो मोतिओं से भरी हुई और सजी हुई माला है जिसके सारे के सारे मोतियाँ मुकम्मल है...आख़िर में मैं समीर लाल जी और अपने बड़े भाई को दिल इस पुस्तक के लिए दिल से बधाई और ढेरो शुभकामनाएं देता हूँ और इसकी असीम सफलता की कामनाएं करता हूँ... साथ में शिवना प्रकाशन का भी आभार....

पुस्तक प्राप्ति :-
मूल्य मात्र रु २००/-
प्रकाशक; शिवना प्रकाशन
पी सी लैब,सम्राट काम्प्लेक्स बेसमेंट
बस स्टैंड के सामने, सीहोर,
मध्यप्रदेश ४६६००१ भारत ॥
दूरभाष: ९१-९९७७८५५३९९

प्रकाश"अर्श"
१४/०४/२००९

Saturday, April 11, 2009

कमाई के लिए बच्चा जो माँ से दूर हो जाए ...

परम श्रधेय गूरू देव श्री पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से तैयार ये ग़ज़ल कुछ कहने लायक बनी है आप सभी का भी प्यार और आशीर्वाद चाहूँगा...


बहरे-हजज मुसमन सालिम (१२२२*)


हमारे नाम से वो इस तरह मशहूर हो जाए ।
के रिश्ता जो भी जाए घर वो ना-मंजूर हो जाए ॥

हिकारत से यूँ रस्ते में मुझे जालिम ना देखा कर
मुहब्बत इस कदर ना कर कोई मगरूर हो जाए ॥

जली होंगी कई लाशें दफ़न होंगे कई किस्से
संभलना शहर फ़िर कोई ना भागलपूर हो जाए ॥

कोई शिकवा हो तो कह दे इसे ना दिल में रक्खा कर
ज़रा सा जख्म है बढ़कर न ये नासूर हो जाए ॥

जिसे भी देखिये वो बेदिली से देखता है अब
मुहब्बत करने वालों का न ये दस्तूर हो जाए ॥

वो रोती है सुबकती है अकेले घर के कोने में
कमाई के लिए बच्चा जो माँ से दूर हो जाए ॥

है पीना कुफ्र ये जो"अर्श"से कहता रहा कल तक
वही प्याला लबों को दे तो फ़िर मंजूर हो जाए ॥

प्रकाश"अर्श"
११/०४/२००९